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________________ १२५ नसे किसी भाणी मात्रकों आप उपद्रव न करे, न करा, और न वैसा करनेवालेकी प्रशंसा-अनुमोदना करें वैसे होव-यानि जैसा वोलें वैसी ही क्रिया किये करें, जैसा ही चाहते है. जैसा वचनमें औसा ही मनमें और वैसा ही शरीरमें पालनेवाले निर्मायी, निष्कपटी, निर्दभी कहे जाते है. मगर मनमें अलग, वचनमें अलग और शरीरमे भी अलग पनि रखनेवाले फ मायावी, कपटी, या दंभी ही कहा जाता है. सच्चा शंकर हो वो किसीको कवी भी किसी प्रकारसे पीडे नहीं, पीडा करावे नहीं, और पीडनेवाले सख्सकी प्रशंगा भी न करें और इनसे विरुद्ध पर्तनवाले शंकर नहीं मगर संकर हैं, वै तो केवल मिथ्या आडंबरफारी मायावी ही मानने लायक हैं. शुद्ध निश्चयनबसें देखनसें आत्माको वर्ण जाति या वेदादिक कुछ भी घटित नहीं है. मगर व्यवहारनयसें कर्म संबंधसे जीवोंकी विचित्र परिणती पशसे शास्त्रकारोंने वर्णादिककी व्यवस्थाकी होवे असा मालुम होता है. अनुभवगोचर भी वैसाही होता है. यदि शास्त्रकारोंन . सामान्य रीति- वर्णादिककी व्यवस्था कर दिखलाई है; तथापि उन्होंका तत्व उपदेश तो यही है किकेवल फलाने वर्णादिकमें पैदा होने मात्र से उनको वोरुपवंतही मान लेना नहीं; किंतु गुण दोष विवेक साथ उनके आचरणकों पूरे तौरसें, लक्षमें लेकर उसमें फलाने वर्णादिकका आरोप करना. अन्यथा नहीं क्योंकि कोइ नाम मात्र से उच्च वर्ण गिनाये जाते
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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