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________________ १२४ -14 " होय विपाके दश गुण रे, एक वार कियुं कर्म; शत सहस्र कोटि गमे रे, तिव्र भावना मर्मरे प्राणी ? जिनवाणी घरो चित्त. " t परमार्थ जैसा है कि कोई भी अकृत्य सामान्य रीति सें मोह किंवा अज्ञानके वश होकर किया गया होवै, तो उसके बदले में दश गुना दंड भुकना पडता है, और वही अकृत्य बहुत हर्षित हो मशगुल हो अत्यंत किलट परिणामसें किया गया हो तो उनके प्रमामें सौ, हजार, लाख, क्रोड, कोडा क्रोड, यावत् असंख्य - अनंत गुणा दंड सहन करना पडता है. इस ग्रुजव समजकर मांसादिक सप्त व्यसनोंसें बिलकुल दूर रहेना; इतनाही नहीं मगर तमाम पापस्थानोंका तदनं त्याग करनेके वास्ते जितना बन सके उतना प्रयत्न करना कितनेक दुर्विदग्ध दांभिक पंडित शिवोहं ब्रह्मास्मि इत्यादि झुंठा निकम्मे सोर गुल हो हां मचाते हुवे मालुम होते हैं मगर जब उनके आचरण तर्फ नजर करनेसें वो देखनेवालोंकों साक्षात् ब्रह्मराक्षस नजर आते है; चौंकि मांस मदिरा जैसी अति निंद्य वस्तुयें भी वो छोड देते नहीं, और मैथुन सेवनादिक अगणित पाप पंकमें (कीचड ) में डूककी तरह वो लीन रहते है. जैसा दिखलाकर उन्होंकी निंदा द्वारा फजीती या बुराई करनी करवानी नहीं मंगते है, हमारा आंतरिक परिणाम जैसा नहीं है; मगर वै ' अहं मै शिव कल्याण रूप हुं-' इत्यादि फर्क वचनसें ही बोलते हैं; किंतु मन वचन त 4
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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