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१८८ (यह तीन प्रकार अंगपूजाके संबंधी समझ
लिजिये अब अग्रपूजाके प्रकार कहते हैं.)
४ धूप-सुगंधी महकदार कृष्णागर दशांगादिक उत्तम द्रव्यास बनाये हुवे धूपसे आत्माकी उपासना दूर कर सुवासना धारन करनेके पारो आत्मार्थिजनोको भावना करनी चाहिये. जैसे धूपोलेप करने से उसकी धूम्रघटा उंची गति करके आकाश प्रदेशकों सुवासित करती है, तैसें उत्तम लक्षसे जिनपूजार्थ उत्तम द्रव्य व्ययसे आत्मभोग (Seif-Sacrifice ) करनेसें आत्मप्रदेश सुवासित धर्मवासित होता हैं. द्रव्य सो भावका निमित्तही हैं. .
५दीप-उत्तम सुवासनावाले पीसें जगदीपक श्रीजिनराजजीक समीपमें द्रव्यदीपक धरकर लोका लोकप्रकाशक पंचमज्ञान-भावदीपककाही भाविकजन भगवंतजीके पास प्रार्थना करे. कर्मधूलका दूर करने के लिये निराजना-आरती और समस्त मंगलको मिलानेके लिय मंगलदीप प्रकटक पवित्र आशय इरादेसे पंचमज्ञान लक्ष्मीकों सहजहीमें प्रकट कर सकै-वैसे दीपकको विधिपूर्वक प्रकट कर असा विचार लेना कि अपना अनादिका अंधकार हमेशांके वास्त दूर हो जाओ!
६ अक्षत-अखंड चावलोंसें अष्टमंगल स्वस्तिक नंदावतादि आलेख प्रभुजीके पास अखंड मुखकी या उसके साधनभूत ज्ञान दर्शन-चारित्रकी प्रार्थना करनी चाहिये. प्रभुजीके आगे रखने