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________________ રર૮ भाषा५ बनकर अपनी भविष्यकी प्रजा तर्फ अपनी पवित्र फज अदा करनेमें नहीं चूकंगे. बालकोंकी अति कोमल और फलद्रूप हृदय भूमिकी अंदर यदि समयोचित अच्छे शिक्षण के बीज बोने में आपै और पीछे दररोज संतपूर्वक सूक्त वचनजलका सींचन करने में आवै तो उन्होंमैसें एसे तो धर्म के अंकुर स्फुरायमान होवे कि उन्होंमेसें हरएक साक्षात् कल्पवृक्षकी परावरी-हरीफाई कर सके ! एक जैन के अंगनमें गे हुवे ऐसे कल्पवृक्ष कैसे शोभायमान होवे ? लेकिन लक्ष्य कौन देता है ? ७ऐसे अति बारीक समयमें भी श्रीमानासे , लगाकर गरीब लोग तकमें कितनेक निकम्मे-फजूल खर्च-जैसे कि नाच, नाटिक, आतशबाजी, किनकौए. जलूस, व्यसन, आदि ये फायदे के खर्च (फर अच्छा मालुम होने के सबसे ) सेंकडो-हजारों रुपै अडा देनेमें आते हैं, उस तर्फ श्री संघ या ज्ञातिके अग्रेश्वरोंकों खास अंकुश रखनेकी जरुरत है. ऐसा लखलूट खर्चने के वास्ते किसीको भी आग्रह करना-करवाना न चाहिये. मुनीराजको भी ऐसे निकसो खर्चके बदले में जिस बातसें जैनोंका कल्यान होता हो अगर हो सकै वैसे सुलभ मार्ग-हेतु उन्हीको युनिके साथ समझाने चाहिये. दृष्टांत रुपकि सात क्षेत्रोंमेंसे दुःख पात्र भये हुवे क्षेत्रमें ज्यादा विवेकपूर्वक व्यय करनेका, उपदेश देना चाहिये. जो एकमतसें शासनकी शोभा बढ सके ऐसे कदम हरएक स्थलपर भरने में आवै तो वैशक थोडे ही वरूतमें एक अच्छा अगत्यको तफावत हो
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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