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३०१ ૧૨ “બ્ધ છલત વાન ની, નિપુણતા વશર વિત
• कार्य प्रवृत्ति करनी." १७३ ' उपर कहे हुवे शुभ गुणोंके सेवन से धर्मका अधिकारी
हुवा जाता है और उसमें वहताही जाता है. तथा गृह स्थ धर्मकी शुद्धि होती है और शुद्ध श्रावक धर्म प्राप्त हो सकता है. अनुक्रमसे दसविध यतिधर्मकी भी प्राप्ति हो सकती है, और प्रमाद रहित शुद्ध यतिधर्मके आराधनसे बहुत अच्छी आत्मविशुद्धि होती है. क्रमशः शुक्ल ध्यानके योगसे सकल कर्म क्षय करके सिद्धि वधूका हमेशके पास्त समागम होता है. और पुर्णानंदी होकर अंतरात्मा परमात्माकी दशा प्राप्त करता है. परमात्म दशा प्राप्त होनेसें जगमरणादि सब उपाधि दूर होजाती हैं. जैसे दग्ध (जलगये) हुवे पीजस अंकुर नही उसकता है, वैसेंही परमात्मदशा पाकर सर्व कर्मका संक्षय करनेसें भव संसाररुप अंकुर नहीं जा सकता है यानि उसका पुनर्जन्म होताही नहीं. ऐसी परम सिद्धदशा प्राप्त.
होती है." १७४ " सिद्ध परमात्माको एकांतिक और आत्यंतिक-अव्यभि
चारी मुख है. समस्त कर्ममलको क्षय हो जाने से निर्मल मुन्ने जैसी विशुद्ध भइ हुइ परमात्मदशा सोही सिद्ध दशा कही जाती है."