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________________ ૦૨ . १७५ " जो जो जीव वहिरात्मपना छोड़कर अंतरात्मपना भजपरमात्माका दृढ आलंवेन पकड़ लेता है वो वो कर जीव ' कीडे और भौरीके न्याय मुजव' आखिर परमात्मदशाही पाते हैं. "" १७१ " बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा ये आत्माके तीन भेद है. "" १७७ “ क्षणिकरूप जड वस्तुमें मोहित होकर राग द्वेषके मलसे आत्माकों मलीन करता है वही भूढ वहिरात्मा कहा जाता है. " १७८ " अंतर लक्ष्य - विवेक- उपयोग जागृत होनेसें जिनको स्वपर - जड चेतन - गुण दोष- कृत्याकृत्य - हिताहित-भक्ष्याभक्ष्य-पेयापेय वगैरःका यथार्थ भान हुवा होवै वो अंतरदृष्टिआत्मा अंतरात्मा के नामसें पहिचाना जाता है. " १७९ " संपूर्ण विवेकद्वारा समस्त भेद भाव दूर करके शु ધ્યાન ભોસ ઘાતીમાં વિરુદ્ધ નાશ દ્દો નાનેસ નાનાં અનંત ઋતુપર્ધાને અનંત જ્ઞાન વર્શન चारित्र - वीर्य प्रकट हुवे है वो आत्मा की परमदशा પાનેસંપરમામાં હીં નાત है. " १८० “ कर्मरूप ढँकनसें ढकी गइ हुइ सर्वस्व रिद्धि सिद्धि सम्यग् ज्ञान-दर्शन और संयम की मदद से प्रकट हो सकती है. "3 १८१ " समस्त कर्म आवरणके क्षयसें सत्तागत समस्त 4
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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