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२०५ विध संधकों दर्शन मात्र करनेसेंही भव्य चकोर तीर्थयात्राका फल मिला सके तो फिर वैसे गुणरत्नोके निधानरू५ श्रीसंघकी भक्ति पूजा-सत्कार सन्मान करने वालोंका तो कहनाही क्या ? वैसे विवेकी नररत्न तो अल्प समयमें ही समस्त पापोंको दूर करके निर्मल हो पवित्र रत्नत्रयी आराध कर मोक्षपद पाते है. जो जो तीर्थकरजी होते है वै सभी ये तीर्थोके आदि लेकर वीश स्थानक अंदरके कुल या एक दो स्थानकको आराधन करकही तीर्थकरनामफर्म निकाचते है. वास्ते समस्त पापपुंजकों दूर कर परम पवित्र करने वाले पुर्वोक्त जंगम स्थावर तीर्थीका यात्रा सचे सुखार्थी भाइ और भगिनीऑको पवित्र मन वचन तनसें करनी, दूसरे भव्य जीवों को उसी तरह करनेका उपदेश देना और उसी मुजब चलनेवालोंकी अनुमोदना स्तुति प्रशंसाद्वारा जितनी वनसके उतनी पुष्टि करनी, यही सम्यक्त्व व्रतका सचा भूपण है. इत्यलम्.
सदभावना.
अय जीव ! तूं विचार कर कि तेरी असल स्थिति कौनसी? सूक्ष्म निगोद. अहा! उसकी अंदर कैसी दुःख विटंबना ?! श्वासोश्वासम भी साधिक सत्तरह भव कर करके मरनके शरन होना!! ऐसी दुःखकी कोटीसें स्थिति परिपाकादिक सबके संयोग से ज्यवहार राशी प्राप्त कर लेकर क्रमसें अनेक भव, अनंत दुःख राशि .