________________
ર૦૬
भुक्तता भुक्तता किसी महद् पुण्य के योगसे यह दश दृष्टांतसे दुर्लभ मनुष्य देह तेरे हाथ आया है. उसमें भी अत्यंत पुण्ययोगस प्राप्त होने लायक धर्मसामग्री, आर्यक्षेत्र, सद्गुरुयोग, धर्मश्रवण,
और धर्मरुचि वगैरः पा करके देहस्य सारं व्रत धारणंच.' यह दुर्लभ देह पानेके खास साररुप पवित्रत्रत धारण करना यही है. श्री वीतरागदेवभाषित सर्वविरतिधर्म अपूर्व चिंतामणि समान है, सो परम भरिसे आराधन करनेमें आवे तो वेशक शास्वत सुख देता है. पैसा परम निरुपाधिक धर्म सर्वथा प्रमादरहित आराधने योग्य है. प्रमाद ये आत्माका कहा दुश्मन है. श्री जिनेपर भगवंतके पवित्र वचनोंका अनादर करके आपमतिसें चलन चलाना ये प्रमाद है. वास्ते सब प्रयत्नसें करके श्री जिन-वचनोंकों यथार्थ समझकर पालने के वास्त हपचित्तवंत होनाही श्रेयकारी है सुखशील जीव अल्प सुखके लिये पहुत काल तकका स्वर्गका या मोक्षका सुख हार जाता है. यदि सुखशीलपन तजकर सावधान हो श्री जिनाज्ञाको पूर्णप्रकार आराधनकी दरकार रख तो अल्पकालमें, अल्पकष्टसें बहुतकाल के उचे दर्जेका सुख स्वाधीन हो सके. मगर तुं स्वाधीनतासें कायर होके आत्मसाधन नहीं करता है, उस्से सच्चे संबल खर्चे विगर पराधीन हुवे बाद धर्मसाधन नहीं कर सकता है, वास्ते पानी पहिले पाल बंधे तो
पूच है ! पहिलेसे ही आत्मसाधन कर लेना वही सबसे __ अच्छेमें अच्छा है.