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. १३० ( आर्या छंद) महुरं निउणं थोवं, कजापडिअं अगवि अमतुच्छं;
पुचि भइसंकलिअं, भणि जं पागसंज्जुत्त. १ __ परमार्थ यही है कि सत्य-मिय सत्पुरुषको सत्यके फायदेकी खातिर कोइभी बात पोलनेकी पख्त इतने करार खास खियालमें रखने चाहिये.-अव्वल तो जो वचन बोलना वो मीठा-हामने वालेको प्यारा लगै सुहावना लगै वैसा मधुरही बोलना; मगर रहामने वाले को सुनकर उलटा खेद पैदा होवे पैसा कटुक कठोर मर्मभेदक वचन न कहना. और मीठे वचनभी न्याय युक्तिसें सहामने वालेके दिलमें उतर जाय-उनका मतलब वो अच्छी तरहसे समझ जाय वैसी चतुराइके साथ बोलना. और वो भी चाहिये હતનેહી વાનિ મતવયે વોસ્ટન-મિત માપન કરના.
हामने वालेका अरुचि हो आवे वहाँ तक हद छोड जाने जैसा बकवाद न करना. और वो भी प्रसंगानुसार-समयानुकुल यानि चलते हुवे विषयकी साथ अच्छ। संबंध रखता हो वैसा बोलना. मतलब ये कि असंबंध वाला भाषण-मोके बिगर न बोलना और न विषयांतर होना-यानि जितनी जरुरत हो उतना ही सत्य गीठा, मतलब सहित-समय शुभीता-विषयानुकूल वचन बोलना-गर्वअहंकार रहित योग्य आदरसे अपनी फर्ज ध्यानमें रखकर बोलना. मगर मदांध-धधि होकर गर्वकी खुमारीमें ज्यौं आया .या वकवाद न करना, और अहो महानुभाव ! अय देवानुप्रिय ! __ भो भद्र ! इत्यादिक हामने पालेके दिलमें सुहावना लगे वैसे