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वैसा वस्त हाथ लगता है. जहांसें मोक्षमहेल सन्मुख मालूम होता है, जैसी अप्रमत्तता कौनसे भव्यचकोरको अप्रिय होगी ? तथापि भव्यसत्वको भी सत्सामग्रीकी अपेक्षा रहती है. सरसामग्रीका यथार्थ लाभ वाधक भूत पांचों प्रमादकी परवशतासें नहीं लिया जाता है. उस लिये जिस प्रकार प्रमादपंचकसे प्राणीवर्ग मुत होकर सर्व धर्म आराधनेकों शक्तिमान् होवै उस प्रकार समय के अनुसार ध्यान दे संत सु साधुजनोंकों परमार्थ दृष्टिसे उपदेश किया है, वो लक्षमें लेकर प्रमादपंचकको दूर कर यथा विधिस्वकर्तव्यको समझ उसी मुजव चलन रखने में तत्पर हो मोक्षार्थिजन स्व ईष्ट सुख साध सकते है; परंतु प्रमादपंचकके तावेदार हो जानेसे स्वच्छंदतापनेसे चलनेवाले प्राणी तो यह मानववादि. दुर्लभ सामग्रीको निष्फल गुमादेकर आगे ज्यादा दुःखी होते है. मतलब कि स्वच्छंदतासें किये गये दुष्कृत्यके फलका आखिर उनको अवश्य अनुभव करनाही पड़ता है. अव्वलसेंही लाभालाभ, हिताहित शोचकर स्वच्छंदता छोड पंच प्रभादको अनादर करनेमें आ तो आगे दुःखी नहीं होना पड़ता है.. . . .
प्रमाद शब्दका अल्प लेखमें खुलासा. : : स्व यानि अपना, अर्थ यानि कार्य साधनेमें, या स्व आत्माके वास्ते स्वार्थ साधनेमें अनादर करना, और जिनसें अपना सच्चा स्वार्थ नाश पावे पैसे दुष्कृत्योंका आदर करना, . उगादका सेवन , करना, विषय छ-लुब्ध होना, कषाय कलुषित बन जाना, बहुत