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________________ १ मध-उन्माद, २ पंचेंद्रिय विषय गृद्धता, ३ क्रोधादि चार कपाय, निद्रा पंचक यानि निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला प्रचला और त्यानी ये पांच निद्रा, तथा राज देश सी-और भोजन इन चारोंकी वार्ता सो विकथाचतुष्क कहाँजाता है. ये पांचों प्रकारके प्रमाद जीव मात्रको अवश्य संसारचक्र फिराते है; वास्ते जगद्गुरु श्री मिनराज पुक्ति पांच प्रमादको दूर करने के लिये उपदेश दे गये है. · मद-उन्मादको त्यागकर निर्मदता, विषयविमुख होकर निविषयता, क्रोधादि कषायका ताप दूर कर निकषायता, निद्राका पराजय करके निस्तद्रता और विकथा-निकाणी पातोंको छोडकर सत्कथा-धर्मकथा, संतोपदेश श्रवण-मनन पालनद्वारा स्वात्महित साधने के वास्ते उधुक्त रहने के संबंधौ परोपकारपरायण श्री पीतरागदेव अपनको पार पार पोध देते है. ऐसा उत्तम बोध श्री सद्गुरुकी विनयपूर्वक सेवा करनेवाले भन्यसत्वको श्री सर्व कथित शास्त्रद्वारा मिल सकता है. प्रमादशत्रुका जोर असा और इतना मवल है कि उनके पशमें पड़े हुवे पाणी तुरंत पैसा हितबोध मातही नहीं कर सक्ता है, तो अपने आपका हित किस तरहसे साध सकै? ऐसे विषम संयोगोंमें संतसमागम मिलना बहुत मुश्कील है. संतसमागमद्वारा प्राप्त हुवे सदुपदेशामृतसें प्रमाद विष दूर हो जाता है. कम हो जाता है. यावत् अनुक्रमसें सदुधमसहोदरकी मददस अप्रमाद शिखरपर पद सकते है या चढ शके
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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