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________________ ७४ स्त्रीकोभी पति तर्फ विनीत शिष्यकी माफिक विशेष नम्र होनेकी आवश्यकता है. अपना पतिव्रत तवही यथाविधि समाला जाता है. पतिको भी स्त्रीको तर्फ उचित मृदुता अवश्य रखनी चाहियें. ऐसे एक दूसरेकी अनुकूलतासें गृहयंत्र के साथ धर्मयंत्र भी अच्छी तरह चल सकता है. तिस बिगर दोन यंत्र बार बार बिगडे या रुक जाते है. अपशब्दादि अपमान त्यागकर स्त्रीका अपनी तरह श्रेय चाहकर वर्तना. स्वदारा संतोष पतिकी तरह समझदार स्त्रीकोभी अपना पतिव्रत अवश्य पालन करना. जैसें स्वश्रेयपूर्वक स्व संतनिभी सुधारने पावे तैसे स्त्री भर्तार दोनुने संप संतोष पूर्वक सद्वर्तन सेवनमें सदैव तत्पर रहेना चाहिये. जैसें आगे के वख्तमें अपना पवित्र शीलभूषण से भूषित बहोत सी सती शिरोमणियोंने अपना नाम अपने अद्भुत चरित्र प्रसिद्ध कीया है, तैसें अवीभी सुविवेकी भाइ और भगिनीये पावन शील रत्न धारनकर सुशीलता योगसें भाग्यशाली होनाही योग्य है. ४८ प्रिय वचन बोलना. दुसरे मनुष्यको मिय लागे ऐसा सत्य और हितकर वचन बोलना. प्रसंगोपात विचारके कहा हुवा हितमित वचन सामने बालेको प्रिय होपडता है. बिना विचारा, औसर विगरका, कर्णकडक भाषण कभी सच्चा हो तोभी अप्रिय होता है, और मीठा, गर्व रहित, विवेकपूर्वक विचार के समयोचित बोलाहुवा बचन बहोत प्रिय और उपयोगी होपडता है, मगर उससे विपरीत बोलना अ +
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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