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________________ २०२ __ शीलप्रत पालना. चाहें वैसे विषम संयोगोंमें भी टेक न छोड़ देनी, जीव जयणाकों जिनशासनमें धर्मकी माता जैसी धर्मकी वृद्धि करनहारी प्रशंसनीय कही है. तो हरएक कार्यमें सावधानतासें चलकर जयणा पालनी उसके वास्ते बडे मनके कुमारपाल राजाका दृष्टांत लेना कि जिसने पवित्र धर्मकी परिणतिसें अपने १८ देशोंमें अमारी पडह बजवायाथा यानि अपने राज्यभर चोपटकै खेलमें भी मार मार जैसी शब्द तक कोइ न बोल सके औसी दया पलानेका ढरा फिरायाथा-डंडी पिटवाइथी. और दूसरे देशों में भी मित्रता बल और धनके बलसे यानि जैसी अनेक युनिसें न्यायसह चलन रखकर जयणा फैलाकर असंख्य जीवोंके आशिर्वाद लियेथे. शासनकी प्रभावनामें भी उसीही महाराजाका दृष्टांत लेकर अपनी शशि दिखलानी चाहिये, जप समजदार अन्यदर्शनी भी एक आवाजसें पवित्र शासनका महीमा गावै असा सद्वर्तन शास्वानुसार किया जाये, तब शासनमभावना की कही जाय... श्री वीतरागदेवके शासनमें रसिये श्रावक-श्राविकाओंके समुदायको निर्मल बोध देनेका जिनका आचार है असे साधु साध्वी वर्गकों भी अपने अपने पवित्र आचारों को भी बहुत मजबूत रीतिसमालकर रहना चाहिये. जैसे विवेकवंत साधु साध्वीयोंसे पवित्र तीर्थमें भव्य जीवोंकों जैसा लाभ होवै वैसा मंदपरिणामी और शिथिलाचारीओंसें नहीं हो सकता है. भ्रष्टाचारियोंसें तो उलटा शासनका उड्डाट-हो हा-फजुती ही हो सके. वास्ते जैसे भ्रष्टा
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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