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पारी जडभक्तोंका किसी तरहसें भी पोषण करना योग्य ही नहीं है, साधु साधीओको सर्वत्र और तीर्थस्थलमें विशेष करिके क्षमा, मृदुता, सरलता, निलोभता, निर्ममता साहित, उत्तम प्रकारसे संथम पालन करके विचरना चाहिये; क्यौं कि उन्हीके पवित्र आचारकों देखकर बहुतसे जीव धर्म प्राप्त करते है, और अनुमोदना करते है. किंतु यदि आचारभ्रष्ट होने से केवल वेष विडंबक हो रहते हो तो हर किसीको भी दिल्लगी-गुस्ताखी और निंदा करने के लायक होते हैं यानि अपमान पाते हैं. और शासनकी मलीनता करनेके कारणिक होनेसें परभवमें भी बहुत दुःख पाते है. वास्ते दंभ छोडकर निर्दभतास सच्ची और पवित्र जैनी क्रिया सच्च तन मन वचन से सेवन करनी योग्य है जिसे स्वपरका लाभ, पवित्र शासनकी उन्नता, यह लोकम प्रत्यक्ष बहुमान और परमवमें इंद्रादिककी ऋद्धि पाकर मोक्षमुख पाता है. असा परमसुख छोडकर कौनसा मुढ दुर्मति किंचित् मात्र विषयमुखमें गृद्ध-आसक्त होकें अपना और दूसरोका काम विगाड कर परमाधामीके मारकी चाहना करे ?
फिर ये जीव अनादि कालसें सुखका अर्थी होने परभी सुखप्राप्ति साधनके सच्चे मोके५५ तुच्छ क्षणिक सुखमे लालचु बन धर्म साधनसे भ्रष्ट हो जाता है तो पीछे उससे ज्यादे निर्भागी दूसरे कौन कहे जाय ? यह तो 'लग्न समय गया निंदमें, पीछे बहुत पिछताय. ' असा होता है। वास्ते सच्चे सुखार्थिजीवोंको बडी खबर. दारीके साथ चलनेकी जरूरत है. दूसरा तुम आपही खुद सुखशील .