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१५४ से वैसे सद्गुरुकी योगवाही पाकर प्रमादरहित बन सके उतना लाभ लेना. - सत्तरहवाँ-साधी वात्सल्पका फल शास्त्रमें उत्तम कही है। पारने उनका स्वरुप समजकर बन सके उतना लाभ लेनेमें न चूक जाना. समान(एक जैसे सर्वज्ञ भाषित)धर्मका सेवन करने वाले साधर्मी कहे जाते हैं. उनकी गुंजास मुजब जैसा वरूत भोका हो वैसी भ'सि. करनी उसीका नाम साधीवात्सल्य है. मायामय संमार . चक्रमें माता पितादि कुटुंबी जनोंका संयोग सहल है, मगर साधर्मी
योका संयोग बड़ा मुश्किल है. भाग्यबुलंदसें उनका संयोग पाकर उनका यथाशक्ति लाभ लेनाही दुरस्त है. साधीयोंमेंसें जो धर्मवन्धु गुण श्रेणिमें आगे बढ़ गया हो उन्होंका समागम-आदर बहुतमान कर गुण ग्रहण कर और वै किसी प्रकारकी तकलीफ दाते हुए मालुम पडें तो उन्होंकों अपनसें बन सके उतनी मदद देकर सच्चे साधर्मीवात्सल्यका लाभ लेना. दुःखपाते हुए साधीओंकी बेदरकार रख फ.. यश-कीर्तिके लोभसे अपनी मति मुजब पैसे उडानेसे क्या साधर्मीकवात्सल्य गिनाया जाता है ? बिलकुल नहीं ! विवेकसे साधर्मीयोंकी उन्नती होवै उसी तरह चलनेसे सहज में वो लाभ मिल सकता है.
• अठारहवाँ-व्यवहारकी शुद्धि स्वहितच्छु श्रापकको अवश्य करनी लायक है. उस पास्ते श्री हरिभद्र सूरीश्वरजीने धर्मबिंदु ग्रंथमें कहे हुवे मार्गानुसारीके ३५ बोल अवश्य लक्षमें लेने