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________________ ૨૭૨ रावक भेद न जाने, कनक उपल सम लेखे; नारी नागिनीको नहीं परिचय, तो शिवमंदिर देखे अवघ. निर. २ निंदा स्तुतिको भवन सुनिके, हर्ष शोच नहि आनै; सो जगमें जोगीसर पूरे, नित चढते गुनठाने चंद्र समान सौम्यता जाकी, सागर ज्यों गंभीरा अवध, निर. 3 मन भारंडे तरह नित, रगिरि सम शूचि धीरा. अवघ. नि. ४ पंकज नाम धराय पंक गुं, रहत कमल ज्यों न्याशः चिदानंदे इस्या जन उत्तम, सो साहबको प्यारा अवघ. निर. १ विपके संबंध श्री चंदानंदजी महाराजका बनाया हुवा पद्म पढकर अपनको लाजीम कि उसके परमार्थ संबंधी विचारमनन करना, समभाव भावित आत्माही तत्त्वसे निग्रंय है, वैसे पवित्र आत्मनिग्रंथ प्रवचन (शुद्ध आगम रहस्य ) सम्पन् समझा जाता है और सम्यम् परिणाम ( परिणवन ) शुद्धि आचार भी वही सेवन कर सकते हैं, दूसरे बाबाडंवरी उस तरहसे सेवन नहीं कर सकते हैं. निष्पृहता वैसे महाशय राजा और रंकको समान गिनते हैं, कनक (वर्ण) और पाषाण बरोबर गिनते है. ऊपरसे वृकम होनेपर भी वक्रगति रागादिभाव-विपसें भरपूर भाभयंकर गिनी गिनते हैं. ऐसे शुद्धाश्रयवाले मैनेज नहीं मिहालय मौज करने पूर्ण अधिकारी हैं; परंतु इम्मे विषयमुखके कामी हो विषय हो-एक दीन
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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