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________________ उपेक्षा करने लायक नहि है. जगत् मात्रको हितशिक्षा देनेकेलिये बंधाये हुवे दिक्षित साधुओकि जो सर्वज्ञ प्रभुकी पवित्र आज्ञावचनोंको हृदयमें धारन करनेवाले और निश्कपटतासें तदवत् वर्तनेको स्वशक्ति स्फुरानेहारे और समस्त लोभ लालचको छोडकर जन्म मरणके दुःखसे भरकर लेश मात्रभी वीतराग वचनकों न छुपाते श्री सर्वज्ञकी आज्ञाको पूर्ण प्रेमसें आराधनकी दरकार कर रहे है, वोही धर्मगुरुके नामको सलकर बतलानेकों शक्तिमान हो सकते हैं, वैसे सिंहकिशोरही सर्वज्ञके सत्य पुत्र है, दूसरे तो हाथी दांतोंकी सभान दिखानेके दूसरे और खानेके-चर्वण करनेके भी दूसरे है-तिनके नामों तो डेढ कोसका नमस्कार है ! भो भव्यो ! विवेक चक्षु खोलकर सुगुरु और कुगुरु-सच्चे धर्मगुरु और धर्मगको बरापर पिछानकें लोभी, लालघु और कपटी कुगुरुको काले सांपकी तरह सर्वथा त्याग कर. अशरणशरण धर्मधुरंधर सिंहकिशोर समान सत्य सर्वज्ञ पुत्रोंका परम भक्ति भावसे सेवन-आराधन करनको तत्पर हो जाओ ! जिसे सब जन्म जरा और मरणकी उपाधी अलग कर तुम अंतम अक्षय पद प्राप्त करो! उत्तम सारथी या उत्तम नियामक सपान सद्गुरूकही दृढ आलंबनस अगाडीभी असंख्य प्राणि यह दुःखमय संसारका पार पाये हैं. अपनकामी ऐसेही महात्माका सदा शरण हो. ऐसे परोपकारशील महात्मा काभी भाणांत तकभी परवंचना करतेही नहि.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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