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शील संतोष-दया-दान-पचरूखाण ये सभीका सेवन करना ही चाहियें. जो जो पावतें उपर कही गइ उनमेंसें कितनीक बातें आजकल कितनेक भाविकजन निनाणु यात्रा के करनेवाले उमीद
सह करते हुए मालुम होते है. जब निन्नाणु (९९) यात्रा पूर्ण __ करने तक ऐसा उत्तम विवेक धारन करते है, और छूटक छूटक - ( पृथक पृथक् ) यात्रा करनेवाले उचित विवेक नहीं पालन करते है
तब कैसा बुरा मालुम हो ! सच पूंछो तो जब तक ये तीर्थराजकी सेवा करनेको मंगो, तब तक उचित विधि हाथ धरकर चलन रखनेकी खास जरुरत है. जयणापूर्वक जमीनपर नजर जोड निगाह रखकर चलना, काम जितना ही सत्य और हितकारी बोलना, कठोर-अप्रीतिकारक वाक्य न बोलना. अनीतिसें किसीकी वस्तु न लेनी. मन-वचन-तनसें करके कुशील नहीं सेवन करना; क्योंकि चाहे वैसे स्थानपर कुशील सेवन के कटु विपाक कहे हैं, तो ऐसे पवित्र स्थानपर तो जरूर करके न सेवन करना चाहिये. । कुष्टि भी नहीं करनी और उसपर लक्ष्मणा तथा रूपी साध्वीका . टांत ध्यानमें शोच मनन कर लेना, और अपनी चालचलन सुधार कर अपनी आत्मासे अलग देह, गेह, कुटुंब, परिवार लक्ष्मी के "उपर मोह मूर्छा छोड देनी. रात्रिभोजन सर्वथा छोड देना, राग,
द्वेष, कलह, क्रोधादि कपाय, मिथ्या कलंकदान, चुगलगिरी, ___ मुखशीलता, खेद, परनिंदा और कथनीसें चलन अलग रखनेरुप । मायामृषा इत्यादिक सभी पापस्थानकोंका ज्यौं बन सके त्यौं त्याग