SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९९ करके श्री तीर्थराज - तीर्थंकरादिक नवपद के पवित्र ध्यानमें लीन रहना. ऐसे यत्न वलसें अभ्यास रखनेसें चिंतकों साक्षात् बहुत सुख होगा• जीस तरह व्यापारी लोग व्यापारकी मोसम - धूमधाम के वख्तमें ठंडी-धूप - वृष्टि - भूख - तृषाकी दरकार नहीं रखते हैं. किंवा वीर लडायकयुद्धे रणभूमिमें वाणोंकी वृष्टिकी दरकार न रखते हीम्मत के साथ अपने वीरत्वकी किम्मत करानेकों शत्रुदल सन्मुख युद्ध करते हैं, उसी तरह ऐसे उत्तम प्रसंगपर श्री तीर्थराज या तीर्थकरादिककी भक्ति करके परभवके रस्तेकी खुराकी लेकर अपना ये दुर्लभ मानवशरीर - जन्म सफल करनेकी सच्ची तकपर सुखलंपट - विषयों के वश्य होना, क्रोधादिकके तावेदार वनना सो अत्यंत आते हुवे लाभमें अमंगल - विघ्नभूत है. उस चख्त तो पवित्र गिरिराजका और पवित्र तीर्थराजका आश्रय ले करके तिर गये हुवे महान् पुरुषों के गुणग्राम सें संवेगादिक उत्तम गुणोकी पुष्टि करते વે वैराग्य रसमें अन्हाते हुवे शांत सुख अनुभवते हुवे, और कठिन हृदय सह परिसहार्दिक सहन करते हुवे, छह अठमादिक दुष्कर तप करके, देहके झूठे ममत्वको त्यागते हुवे, मोहमल्लकी सहामने निडरता अडग रहकर युद्ध करनेके वास्ते अपना तमाम वलवीर्य स्फुरायमान करते हुवे, और इस तरह साहसीक रीति सें जगत् मात्रको हरकत करनेहारा मोहादिक महान् शत्रु के सहामने जयलदगी के स्वामी होने तक लड़ते हुवे निरंतर ज्यों ज्यौं नवीन नवीन वीर्य उत्थानसँ ज्यादे ज्यादे शक्ति प्रकट होती जाती 4 ै
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy