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________________ १०७ विशेष मालम होता है। इसी लिये ही ज्ञानीशेखर पुरुषोंने जयणाको धर्मकी माता कह पतलाई है-यानि आत्मधर्म-गुणोंकों उत्पन्न करनहारी-पालन करनेवाली वृद्धि करनेवाली-यावत् एकांत सुखकारी जयणा ही है. जयणा रहित चलनेवाले, खडे रहनेवाले, बेठनेवाले, सोनवाले, भोजन करनेवाले या भाषण करने-बोलनेपाले उन उन चलनादिक क्रिया करने में त्रस या स्थावर जीवोंकी हिंसा करते है जिसमें पापकर्म बांधते है. उनका विपाक कट होता है. पास्ते मुज्ञ विवेकी सजनोंकों वो वो पलनादिक क्रिया करने के वरूत ज्यों ज्यों विशेष जयणा समाली जाय सौ वर्तन रखना वही हितकारक है; क्यों कि सभी जीवों को अपने जीव समान गिनता हुपा किसी भी जीवको दुःख न दनकी बुद्धिसें समस्त पापस्थान साग कर आत्मनिग्रह करता है वही महात्मा कर्म नहीं पांचता है. अन्यथा अपने कल्पित क्षणिक सुखकी खातिर नाहक अनेक निर५राधि जीवोंके भाणोंको हरण करता हुवा, अजयणासें वर्तन चलाता दुपा वो जीव भारीकर्मी होता है यानि बडे भारी कर्म बांधता है, कि जो कर्म उदय आनेसें बहुतही कटरस देता है. दृष्टांतरुप कि. परजीवोंके संरक्षणके वास्ते मुनिमहाराज रजोहरण ओधा, तथा. सामायिक पोषधादिक व्रतोंमे श्रावक परपला, और इन सिवायके गृहस्थ लोग कचरा कस्तर दूर करने के वास्ते बुहारी रखते हैं; मगर वै सुकोमल होवै तब और हलके हाथास उन्होंका उपयोग करनेमें आये तब तो जीवरक्षारुप प्रमार्जना सार्थक हो जयणा पा
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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