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________________ १०८ लन करने में मददगार होती है; लेकिन उस विगर नही होती. आजंकल अज्ञान दशासे मुग्ध जीव जमीन साफ करनेके वास्ते अच्छे सुकोमल नरमासवाले उपकरण न रखते बहुत करके खजुरी वगैरः की तीक्ष्ण बुहारीयोंका उपयोग करते हुवे मालुम होते हैं कि जो विचारे एकेंद्रिय से लगाकर त्रस जीवो तकके संहार होनेके लिये भारी शस्त्र हो पडता है. अपनेको एक कांटा लगनेसें दुःख होता है, तो विचारे वे क्षुद्रजीवोंकी जान निकल जाय वैसे शस्त्र समान घातक पदार्थों वपरासमें लेनेके वास्ते हिंदु-आर्य मात्रकों और विशेष करके कुल जैनोंकों तो साफ मना ही है जिससे दुरस्त ही नहीं है. अल्प खर्च और अल्प महेनत से सेवन करनेमें आता हुवा भारी दोष दूर हो सके वैसा है; तथापि वे दरकारीसें उनकी उपेक्षा किये करे, ये दयालु जीवोंकों क्या लाजिम है ? बिलकुल नहीं ! वास्ते उमेद है कि उस संबंध धर्मकी कुछ भी फिक्र रखनेवाले या तरक्की क रनेवाले उनका तुरत विचार करके अमल करेंगे. दूसरी भी उपर बताई गई चलनादिक क्रिया करनेकी जरूरत पड़ती है, उनमें बहुत ही उपयोग रखकर जीवोंकी विराध न करतें जयणा पालन करनी चाहिये. चलने के वख्त पूर्णपणे सें 'जमीनपर समतोल नजर रखकर एकाग्र चित्तसें वर्तन रखने में, और बैठने, ऊठनेमें, खडे रहने- सोनेमें भी उसी तरह किसी 'जीवको तकलीफ न होने पावै वैसी सावचेंती रखकर रहना चाहियें. भोजन संबंध में तो जैनशस्त्र प्रसिद्ध बाइस अभक्ष्य और बत्तीस
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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