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________________ २१४ होवे, तोभी वो थोडेही रोज में पायमाल हो जाता है, इज्जत आबरु गुमा बैठता है, पैसे टक्के कम होजानेसे खाली होजाता है, निर्धन बन जाता है, बुद्धि कंठित हो जाती है, मति मोहवंत हो माती रहती है; और उनका कैसा भविष्य होगा उसका भी भान न रहने पाता है. क्रमशः ज्यादे ज्यादे दोष सेवनसें निःशुक परिणामी हो धर्माचारसें भ्रष्ट हो जाता है, उससे शाहुकार के मुँहमें न दुरस्त लगें वैसे देवाली के जैसा भी वकता है, यावत् आवरु धूलमें मिला देता है. जिस प्रकार आपकी प्रकृतिके प्रतिकूल विरुद्ध निषिद्ध मांसादि अभक्ष्य भक्षण करनेहारेकी पाय माली होती है उसी प्रकार इन देव द्रव्य खाने-विनाशने वालेका समझ लेना. पहिले जाने वडी भारी पथ्थर शिला पेट में पड़ी होने उस तरह पेट सज्जड होकर अग्निकों मंद पाडकर अजीर्ण दोष पैदा होनेसें अनेक व्याधियोंकों जन्म मिलता है, उस करतें भी अनंत गुणां नुकशान करनेहारा ये अत्यंताग्रह पूर्वक छोडने लायक बताय गया देव द्रव्यका भक्षण, विनाश या बेदरकारी है. वास्ते ज्यौं बन सके त्यौं पाक दानत रखकर उक्त द्रव्यकी विवेकसें रक्षा या वृद्धि करनी, जिस्से एकांतिक और आत्यंतिक असा तात्विक मोक्षरूप लाभ होवे. ' जैसा देवद्रव्य वैसा ही ज्ञानद्रव्य आश्री भी समज लेना; क्यों कि वो देवद्रव्य ज्ञानका अभ्युदय हो सकता है, और वो सम्यग ज्ञानके प्रभावसे वस्तुतच्च यथार्थ जान बूझकर समझा जाता है,
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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