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________________ v ર૭૦ नकर स्वपरके अहितकी वृद्धि की जाती है; तथापि ये विषमकाल योगसे कितने अहंषक असा व्यापार ले बैठे हैं, उस्में पैसे कठोर "परिणामीयोंकों कया लाभ होगा ? जैसी शंका हो आवै, उनकी समाधानीके वास्ते श्रीमद् यशोविजयजीमहाराजने अध्यात्म सारमें कहा है कि ( अनुष्टुप् छंद.) स्वदोपनिहियो लोक-पूजा स्थाद् गौरवं तथा; इयतैव कदयंते, दंभेन बत बालिशाः ॥१॥ आपके दोष ढके जाय और लोगोंमें आपकी पूजा सत्कार वडाइ हो-फ. इतनेही के वास्ते मूर्ख शिरोमणिभूत दंभी लोग दभवारा कदर्थना पाते है सो खेदकी वार्ता है !" पुनः भी कहा है कि:-" जमीनपर सो जाना, भीख मंगकर खाना, पुराने जैसे कपडे पहनना, और बालोंको नौच डालना ये सवी साधुको करना शुकर है, लेकिन एक दंभकाही त्याग करना बडा दुष्कर है. और जहां तक दंभ-माया कपट न छोड दिया जावै, वहां तक करने आती हुई सभी कष्ट करनी फोकट-फजूल है." बडे बडे नाम धारन करके या फलाने फलानेके शिष्य कहलाकर केवल स्वपरकों कलं कनही किये जाते हैं. जप असले फकीरीकी किम्मत... बूझकर चक्रवर्ती-आपके छः खडके साम्राज्यको छोड़कर योग साम्राज्य भजतेथे और आपके शरीर पर भी ममत्व न परतें अखंड व्रतकाही सेवन करतेथे, तब आजकल जात होनेवाले और जागृह हो गये
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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