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________________ ...,२४९ तन मुग्धतासे बहार व्यर्थ भटक रहे हैं. सुगंधका समूह अपनी अत्यंत समीपमें है तथापि अपन उससे अनजाने होकर - दूर, दूर __ और ठौर भटकते हैं. महाराज आनंदधनजीने कहा है कि:___" शिरपर पंच वासे परमेसर, वामें सूच्छम बारी; . . आप अभ्यास लखे कोइ विरला, निरखे की तारी." सें पंचपरमेष्टि रुप तत्वसें आपही है तोभी केवल - विभ्रम द्वारा अपना आगा उलटा दौडता है, जिससे दिनपर दिन स्वहित न करतें अहितमें ही वृद्धि करता है. वही योगीश्वर आनंदधनजी " आशा मारी आसन घरी घटमें, अजपा जाप जपावै . आनंदधन चैतनमय मूर्ति, नाथ निरंजन- पावै." ___ सच्ची वरतु . आपकी पास होनेसें, और उसीकों ही तालिम लेकर उसीका अनुभव करनेकों भाग्यशाली बन सके पैसा है तदपि वेदरकारीसे या विभ्रमसें विपरीत आत्म अहितकारी जडवस्तु ओंमें माहित हो जाने से ये जीव अपना कितना सत्व श्रेय गुमा बैठते हैं या विगाड़ देते है वो कहानाय वैसा नहीं है। प्रमाद परश होकर चोगर्द लगे हुवे अग्निवाले मकानमें लंबी सॉड खींचकर सोनेवालेकी तरह सॉथा हुवा है. विलकुल भी डर रखकर अपना संचा स्वार्थ साध लेने के लिये तत्पर नहीं होता है. किपाक फलकी तरह देखने में मनोहर, खानेमें लहेजतदार और शुरुमें आनंदकारी मगर आखिर महान् विरस विषयामें अत्यंत आसक्त बनकर म
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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