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११६ रण कराता है। वास्ते बुद्धिवंतकों उनकी कुसंगति बिलकुल छोड देना और पुर्वोक्त गादिक कलंकसें तद्दन रहित सुदेव पीतराग सर्वज्ञदेवकी आज्ञा आराधनेमें तत्पर रहना, तथा बाह्याभ्यंतर ग्रंथिसे रहित निग्रंथ सद्गुरु और वीतराग प्ररुपित दान-शीलतप-भावनारुप सुधर्म उनकों बहुत यत्नके साथ सेवन करने में कटिवद्ध रहना चाहिये. उनमें भी साक्षात् तीर्थकर या केवलज्ञान के विरहके वस्त निग्रंथ गुरु-साधुकी सेवा करनेमें ज्यादे रसिक होना चाहिय; क्यों कि वैसे सद्गुरुओंसें भव्यप्राणीको भवभय दूर करनेहारे शुद्ध देव-गुरु-और धर्म संबंधी तत्वोपदेश मिलता है, जिनको अंगीकार कर अनेक भव्यजीव भीष्मभवादधि सहजहीमें तिर जाते हैं. यानि तमाम दुःखोंका नाश करके कायमके लिये अक्षयसुख प्राप्त करते हैं.
(सदूसरु उपदेश तीन तत्वों का सेवन..)
अय भ०यजनो ! यदि तुम जन्म जरा मरनसें, आधि व्याधि उपाधिसे, भरपूर उत्पन्न होनेवाले अत्यंत दुःखोंसे भरा हुपा ये भव संसारसे कुछ उविज्ञ या अलग होनेकी फिक्रयाले हुवे हो, और तुमको मोक्षपुरीके अक्षय सुखोंको साक्षात् अनुभवमें लेनेकी अभिलाषा जास्त हो तो संसारके समस्त दुःखोंको काटने के वास्ते और अक्षयमोक्ष सुख साधनके पास इस मुजब उद्यम करो. यानि पहिली तो पुर्वोक्त कहे हुवे दोषोंसे दूपित भये हुवे कुदेव-कुगुरुऔर कुधर्मकों हमेशा के लिये विलकुल जलांजली. दे दो. उन्होंको