SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करने योग्य ये अति उत्तम होदेकों मिथ्या मानादिकमें अंध न होत अथवा किसी प्रकारकी भी झूठी लालचमें न लिपटात तदन निस्वार्थ बुद्धि रखकर पूर्व महापुरुषोंसे आत्म लघुता भावत भावत ग्रहण करके तदनुकूल अपनी कुलफज पूरी खतसे बजाय, भ५ भीरता धारनकर किसी तरहकी उन्मार्गी देशना या स-गार्ग लोपनवात्ती न कहते हुवे प्रतिरोज जयवंता वर्तता हुवा जिनशासनको पुष्टि मिल सके पैसे सावधानपनेसे पंचाचारादिकम तत्पर रहवे, तो बेशक जरूर पवित्रशासन के प्रभावसे और अपने सद्भावके योगसे ये प्रत्यक्ष अनुभवमें आता हुवा महा भयंकर चतुर्गति०५ संसार-समुद्रको तिरके दूसरे अनेक भव्य सत्वोंका भी ये दुःखो दधिसें तिरानेमें समर्थ होसकै. इससे सुकानियोंका अति उमदा मगर जोखमवाला आधिकारको अपनी योग्यता ल्याकत बिगर आप मतिसे आदर लेनेसे परिणाम स्वपरको बडीमारी नुकशानीमें उतरना पडता है, इस मुजय उपदेशमालादिक अनेक प्रमाणिक शास्वकार कहते हैं। तब इस परसें ये सिद्ध हुवा कि पवित्र शासनकी रसा और पुष्टि के लिये अति उत्तम सुकानीओंकी खास जरुरत है, चै यदि अच्छे पवित्र शास्त्र रहस्यके ज्ञाता हो, पवित्रशासनकी जाहोजलाली के लिये अतिगहरी खंत-फिक्र रखते हो, और चाहे वैसे नियम संयोगोको लेकर कदाचित भइ हुई शासन मलीनताको दुर करने के लिये जिन्होके अंत:करणमें पूर्ण खंत-उर्मी हो, सभी शासन रसिक साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाओंकों औसर उचित, उनको
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy