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________________ २५३ करें - असी अति अधम निंदा पात्र जिसकी स्थिति बन रही हावे. હસ્તા પરિવાર માં વદુત્ત वर्षे ली जासके वैसीही है. જે પૈસાદો હોવ યજ્ઞ વાત માઁ અનુમ- ܥܚ अलबत आजकल साक्षात् तीर्थकर, गणधर सामान्य केवली अवधि, मनः पर्यवज्ञानी, चौदह पूर्वघर, दश पूर्वधर, यावत् एक पूर्व घर के विरहसे सारे शासनका आधार पूर्व महा पुरुषोंने पर्षदा समक्ष प्ररूपे हुवे परमागम - उत्तम शास्त्र और परमपवित्र तीर्थकर भगवानादिककी प्रतिमाजी ऊपरही है. वही आगम और पावन प्रतिमाजीओका यथार्थ रहस्य बतानेवाला मुख्यतामें अधिकारी निर्भय सुनिवर्ग ही कहा गया है. यह अपार संसार सागर तिरने तिरानेमें समर्थ जिनशासनरूपी सफरीजहाजको बराबर गतिमें चलाने में सुविहित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर और મખાવઋદ્રાતિ જે વડે ધારી વાળાં મુનિયોંજી નદ समझने में आते हैं, और बाकीके साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका के. समुदायको सायांत्रिक उक्त महाशयोंकों - अवलंब ये अति भीપણ મર્ચે સમુદ્ર હોય તો મોક્ષપુરી ખાનોં વા કુવેછે ભાવાંજો जगह, गिमें आये हैं- आते हैं. स्पष्ट रीतसें समझा जाता है किं सबसे ज्यादे जोखमदारी गिनाते हुवे सुकार्नाओंके शिरपर है उन्होंकी हरीफाइमें दूसरे तदाश्रितों का बडा लाभ समाया हुवा है. सुकानियें महान् जोखमवाले होदेके बराबर लायक हो या पूर्ण - लायक होने लायक प्रयत्नपर रहकर केवल परमार्थ बुद्धिसंही ग्रहण 3
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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