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________________ ४७ नताके जोरसे वा बोलकर और व पलकर जीव पहोत दुःखी होते हैं। तदपि यह अनादिकी कुचाल सुधार लेनी जीवको मुस्केल पडती है. जिस्की भाग्यदशा जाग्रत हुई है पा जाग्रत होनेकी हो चोही सीधे रस्ते चल सकता है, ऐसा समझकर धूम्रकी मुट्ठी भरने जैसा मिथ्या प्रयास नहि करते सीधी सडकपर चलकर स्वहित सा... पन निमित्त सुज्ञ मनुष्यको नहि चूकना चाहिये. ऐसी अच्छी म यादा समालकर चलनेसे क्रुधित हुवा दुर्जनभी क्या विरुद्ध पोल सकेगा ? कुच्छभी छिद्र न देखने से किंचित् एडी तेडी बातभी नहि पोल सकता है. इसलिये निरंतर समष्टि रखकर चलना कि जिस्से किसीको टीका करनेकी जरुरत न रहने पावै. ९ अपनी जीव्हा नियमसें रखनी. • जीव्हाको १२५ करनी, निकासा नहि वोलना. जरुरत मालूम हो तो विचारकर हितमितही भाषण करना. रसलंपट होकर जीव्हाके १२५ पडनेसे रोगादि उपाधि खडी होती है. तथा बोलनेमें मर्यादा पहार नहि जाना. जीभके पश्य पडे हुवेकी दूसरी इंद्रिये कुपित होकर उनका गुलाम बनाके बहोत दुःख देती है. इस हेतुसे सुखार्थीजन जीभके तावे न होकर जीभकाही तावे कर ले पोही सबसे बहतर है. १० बिना विचार कुछभी काम नहि करना. सहसा-अविवेक आचरणसें पड़ी आपदा-विपत्ति आ पड़ती ___ है. और विचारकर विकसे परीने पालेको तो खयमेव संपदा आ
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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