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________________ १२१ आत्मसाधन हो सके वैसा है; लेकिन प्रमादसें ये अमूल्य तक चुक गया तो फिर पीछे ठिकाना पडना वडा मुश्किल है. पीछे तो पराधीनता से पूर्ण दुःख दरियावमें डूबे हुवे परभी कोइ शरणभूत होने वालाही नहीं. श्री शत्रुंजय महात्म्यकी अंदर कंडुराजाके अधिकारमें श्री धनेश्वर सूरीजीने कहा है कि: " धर्मेणाधिगतैश्वर्यो, धर्ममेव निहंति यः कथं शुभायतिर्भावी, स स्वामी द्रोह पातकी. " सारांश यही है कि- पूर्वमें सेवन किये हुवें धर्म के प्रभाव सेंही करके सभी संपत्ति पाये पर भी जो मूढबुद्धि धर्मकोंही विनाशता है वो स्वामीद्रोह करनेहा महापापीका कल्यान किस तरह होवे - गा ? मतलब - कदापि न हो सकेगा. एक सामान्य राजाका हुकम तोडनेरुप वडा गुन्हा करनेवालेकों वडे भारी दुःख सहन करने पडते है, तो त्रिजगत्पति जिनेश्वरदेवने परम करुणा - हितबुद्धिसें फरमाई हुई हितशिक्षारुप उत्तम आज्ञाकों तदन उल्लंघन कर मदोन्मत्त चनकर केवल विषयसुखकीही लालच में लुब्ध होभये हूवे पामरअति दीन प्राणीओंकों कितना भारी दुःख आगेपर उठाना पडेगा ? अहा ! मोह मदिरा घोर जिसमें मन होकर पडे हुवे वै महा मूंढ जनोंकों उन संबंधी खियालभी नहीं आता है कि अभी एक क्षणभर सुख वो भी अति तुच्छ - कल्पित और उसका विपाक -परिणाम महा भयंकर जरुर भुक्तनेही पडेंगे. विषय, किंपाकके प्राणघातक फलवत् पहिले मुग्ध जीवोंकों C
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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