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१२० __ हैं. और पैसे सदुपदेशादिक विरहसे अनादिक उलटे अभ्यास
के सववसे पैसे कुकर्मके सेवनहारेके भी वैसेही हाल होते है. ये उपदेशका मतलब इतनाही है कि-धुर्व पुण्यद्वारा मिली हुई सद्गुरु
आदि उत्तम सामग्रीका लाभ लेकर ज्यौ वन सके त्यौँ तुरंत पूर्वो- महा सात व्यसनोंका सहेतुक स्वरुप समझ कर संकल्पपूर्वक ___ उन्होंको जरुर त्याग करना, यही हरएक अक्लमंद शरीरधारीयोका कर्तव्य है.
सामग्री विद्यमान होने परभी उसका अनादरके भविष्यमें प्राप्त होने वाली सामग्री योगसें साधनेकी आशा केवल दुराशारुप ही है; क्योंकि वैसे सत् साधन विगर पैसी उत्तम सामग्रीका लाभ जन्मांतरभी होना असंभवित है. अज्ञान दशाके वश अतीत अनंतकाल तो योंका युही निकग्गा गुमाया और अभीभी पूर्वसंचित योगसे मिली हुई सत् सामग्रीका लाभ न ले सकता है, सो मंद • भाग्य या हतभाग्य दुर्भव्यको आगे बहुत शोचनी पडेगा. पूर्वपुण्य योगस मिला हुवा ये मनुष्य जन्म सद्गुरु समागमादिरूप सत् सामग्रीका विद्यमान लाभ पाकर प्रमादरू५ महान् शत्रुके तावे होकर के चिंतामणि रत्न सदृश धर्मका आराधन नहीं करता है, वो भूब पामर प्राणी सचमुच चतुर्गतिरुप संसाराटवीमें बहुत दफै भटककर महा दुःखयातना पाता है और पावेगा; 'वास्ते दुःखसे डरनेवाले
सुखाथी जीवाको जरुर समादके फंदमसे छूटकर स्वश्रय साधनम . न चूकना. अभी अल्प कोटमे थोडे वखतमें स्वाधीनतासें चाहे तो