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________________ पाप याद आनेसें बहुत पिछतावा होता है; लेकिन जैसा जैसा कठोर कर्म-पाप किया होवै उस उस मुजब दुःख भुक्तने के वादही वहांसें छूटकारा होता है, वो भी शमतासें भुक्ते तो; नहीं तो महा आर्त रौद्र ध्यानसें पीछे भारी निकाचित कर्म नये पांध लेनेसे पुनः उससेंभी कठिन विशेष दुःख आगेको भुक्तने पडते हैं. इस मुजव पेस्तर और पीछे भी केवल दुःखको ही देनेहारे उकथित सात महा व्यसन बुद्धिमानोंकों अपने हितकी खातिर संकल्प-निश्चयपूर्वक छोड देनेही चाहिये. ये महा व्यसनों के सेवनहारे (मन वचन तनद्वारा करने कराने या इन्होंकी प्रशंसा करने हारे) महा संक्लिष्ट परिणामसें महा अशुभ निकाचित कर्म वांधकर अपनेही आत्माकों महा मलीन करके नरकादि अधोगति पाकर अनंत दुःख पाते है. इसीसेंही परमकृपालु सर्वज्ञ प्रभुने भन्य जीवोंके भलेकी खातिर उपर कहे गये मप्त व्यसन छोडने के संबंध शास्त्रोंमें प्रसंग प्रसंगपर उपदेश किया है. कोमल हृदयपवित्र आशयवाले प्राणी पैसा पवित्र उपदेश पाकर पूर्वोक्त सात महा व्यसनोंको ज्यौं बन सके त्यौं तुरंत जरुर छोड़ देते है. फक्त अर्धदग्ध या दुर्विदग्ध दुर्भागी जीवही वैसे सदुपदेशका अनादर करके कुमतिकी कदर्थनाको सहन करते हुवे आपमतीसें उलटे चलते है. उन्होंकी छाती पैसेही घोरकर्म करने में अत्यंत कठिन वज जैसी होनेसें वै विचारे नरकादि महादुःखों के ही अधिकारी
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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