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________________ ૨૨૨ भीठा लगता है; मगर पीछे वडामारी अनर्थ पैदा किये विगर नहीं रहता है. खुजली पालेको प्रथम खुजालते रुत बडी सुहावनी लगती है; पर पीछे सें बहुत जलन वगैरः संताप होता है. ग्रीना तुमें तृषातुर बने हूये भोले हिरन मृगतृष्णा जलको देखकर दौडते हैं, मगर वै बिचारे कष्ट मात्र फल पाते हैं. उसीही तरह विषयातुर जीव उन उन विषयसुखके भ्रमसें अनुसरकर महादुःख थातना उठते है. असा समझकर चतुर शिरोमणि जन हमेशां सावधानतासेंही रहते है, जिस्से कदापि उन्होंको जैसी अवदशा होती ही नहीं. कितनक मुग्धजन तो वेसमझसे वो व्याप्तनादि महा पाप असे व्यवहारसें नहीं सेवन करते है तो भी वै उन व्यसनोंकी तस्वरुप समझ विगर श्री वीतराग या निग्रंथ गुरुके परम करुणामय सदुपदेशकों प्रमादवश होकर अनादर करनेसें वै महा व्यसनादिकका नियम-निश्चय पूर्वक त्याग नहीं करनेसें पापके हिस्सेदार तो होतेही है. उन महा व्यसनोका त्याग करने के लिये जो हद संकल्प करना चाहिये उसकी न्युनतासें वै महापाप सेवन करने वालोंकी तरह आप भी पाप के हिस्सेदार ही करते हैं. - कितनेक जीव अज्ञानदशासें ऐसा कहते हुवे मालुम होते है कि:-'जो काम अपन करते ही नहीं है उनको पञ्चस्खान लेनेकी जरुरत क्या है ? ' इन आदि अनेक कुतर्कद्वारा अन्य भोले वालजीवोंकों भी भ्रममें डालकर स्वच्छंदतासें मिथ्यामार्गकी पुष्टि करते हैं।
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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