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६३ पीछे बड़ा कार्य करना. . कार्यका स्वरूप समझकर समतासें वो शुरु किये पाद चित्त उत्साहादि शुभ सामग्री योगसे युक्त कार्यकी सिद्धिके लिये पुख्त प्रयत्न करना. ऐसी शुभ नीतिसें कार्य करने में अध्यवसायकी विशुद्धिसे उत्तम लाभ प्राप्त होता है. - . ६४ (परंतु ) उत्कर्ष नहि करना.
शुभ कार्य समतासें शुरु करके उनकी निर्विघ्नतासें समाप्ति हो ने बाद भी अभिमान या वेडा जैसा कुच्छभी करना नहि. मनमें ऐसी श्रद्धा-समझ ल्याके कोइभी कार्य काल, स्वभाव, नियति पूर्वकर्म और पुरुषार्थ ये पांचों कारण भात हुवे विगर होताही नहि, तो वो पांचों कारण 'मिलनेसें कार्य हुवा उसों गर्व काहेका करना चाहिये ? क्यों कि कार्य तो वो कारणोंने कीया है. वास्ते गर्व छोडे कार्य सिद्ध होनेसें श्रद्धा-दृढतादि विवक नम्रताही धारण करनी दुरस्त है. वैसे सुनन विवेकी जन जगतके अंदर अनेक उपयोगी शुभ कार्य कर सकते है. . .
६५ परमात्माका ध्यान करना. वाह्यात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा ऐसे आत्माके तीन प्रकार है. शरीर कुटुंबादि पाह्य वस्तुओमें व्याकुलतावंत होरहा हुवा बाह्य आत्मा कहा जाता है. अंतरके भीतर विवेक जाग्रत होनेसें जिस्को गुण-दोष, कृत्याकृत्य, लाभालाभका भान-शुद्धि हुई हो,