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१६३ अद्ध मालुम होते हैं उनके बहुतसे कारण है. पो लसमें लेके विचारनेसें और पूर्व के शुद्ध ग्रंथोकी साथ मुकाबला करनेसें बहुत दिलगीरी पैदा होती है. और पूर्व प्रभाविक पुरुषोंने लिखाये हुचे ग्रंथोकी आजकल बहुतसी जगह चलती हुइ गरव्यवस्था देख अपार खेद होता है. ऐसे परमपवित्र शास्त्रोंकी हानि होनेका कारण अज्ञान और अविवेकका जोरही मालुम होता है; क्यौ कि जो वै पवित्र शास्त्रोंको सच्चा मूल्य समझनेमें आया होता तो पीछे कौनसा मंदभागी वै पवित्र शास्त्रोंका उपयोग न करतं, और न करने देते ? जाने अपने पापकी मिलकत होवै उसी तरह ममतासें महाकुपणके धनकी माफिक उन्होंको छाकर रखके उन्होंका लाभ लेने में इतजार और सच्चे हकदार समस्त श्री संघकी अवज्ञा करके दीमग
आदिकसे उनका नाश होजाने तक उन्होंकी दरकारी किये करते हैं. सचमुच ये कुप्तपने सत्यानाशीका रूत दिखलाया है. नहीं तो दो घंटेकी अंदर ये सब सीधादोर हो जावै. जो ये नाश होते हुये पुस्तकोंको अमूल्य समझकर बचा लेने हो तो उसका सचा और सरल उपाय संपही है. आजकल लिखे जाते हुपे हजारो अशुद्ध ग्रंथोंसे नाश हुवे जाते शुद्ध ग्रंथों का बचाव करनेमें पड़ा भारी फायदा है. नाश हुई वस्तुका दूसरी जगह पता मिलना ही मुश्किल है, और वैसे ग्रंथोंका वचाव किसी प्रकार भी हो सके तो अच्छा है, नहीं तो अति विरल और खास उपयोगी ग्रंथोंकी एक एक नकल अति शुद्ध कर, करवाकर उन प्रतके उपरसें अनुकूल साधन