SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही मुनाशिव है. परमार्थ बुद्धिसें भव्यजीवोंको स्वहित साध्य करलेने के लिये युति के साथ भेरणा करनी उनके जैसा एक भी परोपकार नहीं है. पैसा परोपकार वस्तुतः खार्थ रूप ही होनेसें हरएक सार्थक-सच्चे जैनोंने अन्यजनोंको शुद्ध जन तत्व समझानेके वास्ते चन सकै उतना प्रयत्न करना जरुरतका है. इस प्रकारका यत्न स्वपर हितकी वृद्धि सहित पवित्र जैन शासनकी उन्नति सिद्ध करने के लिये प्रवल कारणभूत माना जाता है. चरम तीर्थकर श्री महावीर स्वामीने परिपूर्ण ज्ञानद्वारा पूर्व तीर्थंकरोंकी तरह वस्तु तत्व यथार्थ जानकर, मरुपकर अनेक भव्य जनोंके अज्ञान अंधकारका साक्षात् छेद नाश किया है, इतनाही नहीं मगर महा मंगलमय ज्ञान प्रकाश पवित्र द्वादशांगी द्वारा वसुधातलपर भव्य जनोंके कल्याण निमित्त फैलाकर आखिर अविनाशि अचल सिद्धि स्थानमें निवास किया. जैसे अंधे मनुष्यकों करोडों दीपक भी उपकार नहीं कर सकता है, तैसे कदाप्रहसे ग्रसित हुवे मिथ्यादृष्टि अंध जनोंको उ. पवित्र ज्ञान प्रकाश उपकार नहीं कर सकता है; परंतु सरल बुद्धि आत्मरुचि सज्जनोंको चो.महान् उपकार कर सकता है. औसा समझकर पहिले सामान्य रीतिसं श्रीमहावीरजीके निर्वाणका क्यान कथनकर पीछे अपने कतव्य तर्फ भव्य सत्वांका लक्ष्य खींचा गया है. वाद विविध प्रकर'णोंका सार ग्रहण कर 'सार बोल संग्रह ' और धर्मकल्पवृक्ष यथामति तैयार किया गया है. उसके बाद नाम मुवाफिक गुणधारक * उपदेश रत्नकोश" प्रकरणका बहुत करके बाल जीवों को भी -समझ लैना सुलभ हो प. वैसी सरल भाषामें सद् उपदेश सार नामक विवरण सामान्य रीतिसें करने में आया है. ये विषय जैन बालकोको नीतियुक्त सामान्य धर्म पोध देनेमें खास उपयोगी हो A
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy