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श्री देवगुरुका अवग्रह समालने की नीति मर्यादा नीचे मुजब है:
विशाल जिनमंदिरमें जगहकी विशालतासें उत्कृष्टपने ६० हाथका अवग्रह - अंतर संभालकर सुविवेकीजनों कों देववंदनादिक उचित क्रिया करनी चाहिये. विशाल जगह न होवे तो जिनभुवनमें चैत्यवंदनादिक करनेमें जैसी सगवड योगवाइ होवै वैसे अंतरकी मर्यादा सभालने की दरकार रखनी चाहियें. आखिर जधन्यतासे ९ हाथका अंतर अवश्य अवकाश योगसे समाल लेना. कदा चित् भक्तिचैत्य यानि गृहमंदिर में उतनी योगवाइ न हो तो उस्सेभी कम करते हुवे जितना दनसके उतना अंतर जरूर रखना. गुरुजीको वंदनादिक करनेमें भी अंतर अधिकारपरत्वसे जरूर समालना चाहियें. अवग्रह समालनेमें आशातना हानि, योग्य आदर - बहुमान संभालने के उपरांत अनेक लाभ समाये हुवे हैं. सुश्राचक्कों गुरुजीका ३|| हाथका और सुश्राविकाको १३ हाथका उ(कृष्ट अंतर समालना. खास अगत्यवाले सववसें- आलोयणादि लेनेमें तो श्रावकको || हाथ अंदरका और श्राविकाको ३|| हाथ તમેં તુરખીળી રના મિજાર પ્રવેશ વરના પતા હૈ; પરંતુ યુजीके हुकमविगर उक्त मर्यादाका वन सके वहांतक भंग न करनाजगह विशाल न हो तब तो उपर कहा गया न्याय ही समझ लेना. तोभी वर्गों तो ३|| हाथको अंदर तिलभरमी आना
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