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१८६ नहीं करूपता है. जैसे साधुके संबंध श्रावक श्राविकाको उचित अंतर समालने के लिये फरमाया है उसी मुजब साध्वीआश्री सुविवेकी श्राविका या श्रावकजनकों जरुर वाजबी अंतर समालना. यानि श्राविकाको साध्वीजीका अंतर ३॥ हाथका, और श्रावकको उत्कृष्ट १३ हाथ और अपवादसें जघन्य ३॥ हाथका अंतर जरुर समालना चाहिये. जैसा श्रीजिनशासनआज्ञा मुजब उचित मर्यादा समालनेसें चतुर्विध संघको हितरुप होसकता है. परंतु उचित मयादा उहंधन करके आपमतिसें चलनेसे तमाम जैनवर्गको अहित होनेका संभव है. वास्ते सुविधीजनोंकों शास्त्रआज्ञाका आदर करनेमें जरुर दरकार रखनी चाहियें, जिससे स्वपर-उभयका हित होते.
पवित्र हेतु यु. श्री जिनेश्वरजीकी अष्टप्रकारी पूजा
? श्री जिनेश्वरजीको जल-अभिषेक करनेमें जैसे सुरेंद्र हर्ष अरसे हर्षदीवाने भयेहुवे परभी अपनेही अंतरमलकों दूर करके आपको धन्य-कृत पुण्य गिनते है, और आपकी विशाल देवऋद्धिको तृणवत् मानते है, तैसें भव्य श्रावक उत्तम जलद्वारा प्रभुजीका
अभिषेक करने के पस्त अपने अंतरमलकोही धो डालकर अपने , आत्माको धन्य मानकर मुक्तका संचय कर लिया करे.