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________________ ४० वन करना उनके समान एक भी उत्तम धन नहीं है. शील- परम मंगलरूपी होनेसे दुर्भाग्यकों दलन करनेवाला और उत्तम सुख देनेवाला है. शील तमाम पापका खंडन करनेवाला और पुन्य संचय करनेका उत्कृष्ट साधन है, शील ये नकली नही मगर असली आभरण है, और स्वर्ग तथा मोक्ष महलपर चडनेकी श्रेष्ठ सीढ़ी है. इस लिये हरएक मनुष्यकों सुखके वास्ते अवश्य सेवन करने लायक है. शीलव्रतको पूर्ण प्रकारसें सेवन करनेसें अनेक सत्वोंका कल्याण हुवा है, होता है, और भविष्य में होयगा. तपः - कर्मकों तपावे सोही तप. सर्वज्ञने उनके बारह भेद यानि छः बाह्य और छः अभ्यंतर असें दो भेद सामिल होकर होते हैं. उसकी नाम संख्या भेद नीचे मुजब हैं. अनशनः-उपवास करना सो (१), उनोदरी दो चार कवल कम खाना सो (२), धृत्तिसंक्षेप - विवेक - नियम मुजब मित अन्नजल आदि लेना सो (३), रसत्याग-मद्य, मांस, सहत, मख्खन, ये चार अभक्ष्य पदार्थोंका विलकुल त्याग के साथ दुध, दहीं, घी, तेल, गुड और पकवान वगैरः का विवेकसें बन सके उतना त्याग करना सो (४), कायाक्लेश- आतापना लेनी, शीत सहन करनी सो (५), और संलीनता अगोपांग संकुचित कर - एकत्रकर स्थिर आसनसें बैठना सो (६) ये छ: बाह्य तप कहे जाते हैं. अब छः आभ्यंतर तप बतलाते हैं. प्रायश्चितः - कोइ भी जातका पाप सेवन किये वाद पश्चाताप पूर्वके गुरु समय उनकी शुद्धि करनेके वारणे योग्य दंड लेना सो (१),
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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