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राग द्वेष रहित है; तथापि प्रभुकी शुद्ध भक्तिका राग चिंतामनी रत्नकि साहश फलीभूत हुए विगर रहेता ही नहि. शुद्ध भक्ति यहभी एक अपूर्व वयार्थ प्रयोग है. भक्ति से कठिन कर्मकाभी नाश हो जाता है, और उसीसे सर्व संपत्ति सहजहीमे आकर प्राप्त होती है. ऐसा अपूर्व लाभ छोडकर बंबलकों भाथ भरने जैसी तुच्छ विषय आशंसनासे विकल्पनसे वैसीही प्रार्थना प्रभुके अगाडी करनी कि अन्यत्र करनी यह कोई प्रकार से मुज्ञजनोको मुनासिवही नहि है. सर्व शक्तिवंत सर्व-प्रभुकी समीप पूर्ण भक्ति रागसें विवेक पूर्वक ऐसी उत्तम प्रार्थना करो यावत् परमात्म प्रभुकी पवित्र आज्ञाको अनुसरनेके लिये ऐसा उत्तम पुरुषार्थ स्फुरायमान करो कि जिस्सें। भवभवकी भावठ टलकर परम संपद प्राप्तिसें नित्य दिवाली होय, यावत् परमानंद प्रकटायमान होय, मतलबकि अनंत अवाधित अक्षय सहज मुख होय. सेवा करनी तो ऐसेही स्वामिकी करनी जिस्से सेवक भी स्वामिके समान ही हो जावै.
१९ किसीकी भी प्रार्थनाका भंग नहि करना.
मनुप्य जब बडी मुशीबतमें आ गया हो तवही बहोत करके गर्व टेक छोडकर दूसरे समर्थ मनुष्यकों अपनी भीर भांगनेकी आशासै प्रार्थना करता है. ऐसें समझकर दानादिलका श्याना और समर्थ मनुष्य उस्की प्रार्थना योग्य ही होय तो उनका प्राणांत तकभी भंग नहि करके महामने वालेका दुःख दूर करने लायक जो