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मयको अनुसरक महान् पुन्य उपार्जन करते है. और उन्हके पुन्4पलस लक्षीभी अचूट रहती है. कुंएके पानीकी तरह वडी उदारतासे व्यय की हुइ हो तोभी उदारताकी लक्ष्मी पुन्यरुपी अविछिन जल प्रवाहकी मदद से फिर पूर्ण होजाती है. तदपि कृपणको ऐसी मुबुद्धि पूर्व अंतरायके योगसे ध्यानमें पैदाही नहि होती उरा वो विचारा केवल लक्ष्मीका दासत्वपना करके अंतमें आत ध्यानसे अशुभ कर्म उपार्जन कर हाथ घिसता-रीते हाथसे यमके शरण होता है. वहां और उसके बादभी पूर्व अशुभ अंतराय कर्मके योगसे वो रंक अनाथको महा दुःख भुक्तना पडता है. वहां कोई शरणआधारभूत नहि होता है. अपनीही भूल अपनकों नडती है. कृपणभी प्रत्यक्ष देख सकता है कि कोइभी एक कवडी-कौडीभी साथ पांधकर ल्याया नहि और अवसान समय कौडी बांधकर साथ ले जा सकेगाभी नहि; तदपि विचारा मम्मण शेठकी तरह मही आतध्यान धरता और धन धन करता हुवा झूर झूरके मरता है. और अंतमें बहोतही बूरे विपाक पाता है. यह सब कृपणताके फीफल समझकर अपनकोभी वैसेही बूरे विपाक भुक्तने न पडे, इस लिये पानी पहिल पाल वांधनेकी तरह अपलसही चेतकर अपनी लक्ष्मीके दास नहि; लेकिन स्वामी बनकर उस्का विवेकपूर्वक यथास्थानमें व्यय करके उस्की सार्थकता करनेके लिये सद्गृहस्थ भाइयों को जाग्रत होने की खास जरूरत है. नहि तो याद रखना कि, अपनी केवल स्वार्थ वृत्ति०५ महान् भूलके लिये -