SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ विवेक विगरके श्रावकको ज्यों मोजमें आवै त्यौं वर्नन चलाते और मोहजालमें फंसकर खुवार होते हुएको यदि न रोक लगे नो सचमुच खुद निंदापात्र हुए विगर न रहेंगे. क्या अपने में विश्वास नखकर आश्रय लेनेके वास्ते आये हुवे और आते हुवे मुग्ध जैनी भाइयो और भगिनीयोंकों, सर्वज्ञ पुत्रका वडा भारी विन्द धारन करके खुद अपने पिता परम पूज्य श्री तीर्थकर महाराज पवित्र आगमके आधारसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको यथार्थ लक्षमें रखकर सर्वदा उचित सत् मष्टत्ति करने करानेरुप उत्तम नीतिका आलंबन लेकर योग्य इन्साफ न दोगे ? अहा ! अगाडीके परूतमें जब न्यापासनपर विराजित हुवे चाहे वैसे कुशल लौकिके न्यायाधीशसे भी बहुत उच्च प्रकारका संतोपकारक उभय लोक सुखदायी कर्मशत्रुको नास देकर सभ्यम् ज्ञानदर्शन चारित्रादि अनेक सद्गुणाको पुष्टिकर-न्याय श्री सर्वज्ञ महाराजके पाससे मिलाने के वास्ते भव्य लोक सर्वदा भाग्यशाली वनतेथे, तब आजकल वही सर्वज्ञके विरुद धरनेवाले आचार्य-उपाध्याय प्रवर्तक या पन्यास वगैरः पीके घरनेहारे मुनीवर्गके पाससे उत्तम प्रकारके निष्पक्षपात इ-साफकी मग चकोर क्या उमीद न रखे ? अलबत्त २०खे ही रखे. असा होने पर भी जब उनकी परम पवित्र अहनीति मुजब पाहिये वैसा संतोपकारक न्याय न मिले, तब वै निराधार होनेसे किसके पास जाकर पुकार करें ? यह सब बात निगाहमें लेकर जिस तरह भव्य चकोरोंका दिल मसन और परम पवित्र शासनकी
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy