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विवेक भकप्ता नहीं जहांतक तत्वविवेक प्रकट होवै नहीं, पहातक
हिताहित बराबर समझने में आ सके ही नहीं. जहांतक हिताहित स. __म्यम् समझने में आवे नही, वहांतक अहितके त्यागपूर्वक हितमागका
सम्यम् सेवन हो सके ही नहीं. जहांतक आहितके त्याग पूर्वक स. म्यक हितमार्गका सेवन न किया जाय, वहांतक परमकृपालु परमामाकी पवित्र आज्ञाका उल्लंघन हुवे विगर रहे ही नही. और जइतिक पवित्राज्ञाका उल्लंघन किया जाता है, वहांतक ये अति भयंकर भवोदधि तिरना बहुत मुश्किल है, और पवित्राज्ञाका सम्यम् आराधनसें वही संसार तिरना सुगम हो पडेगा.
परमकृपालु परमात्माकी पवित्र आज्ञाका आराधन सम्यग् रीनिसें हितमार्गका सेवन करनेसेंही होता है. सम्यक रीतिसें हित सेवन विवेकपूर्वक अहितमार्गके त्यागमें होता है. पर हिताहितकी समझ सम्य ज्ञान क्रिया के सेवन करनहारे सद्गुरुद्वारा हो सकती है. औसा सिद्ध होता है कि सम्यग् हितमार्गदर्शक उक्त स[रु होनेसें आत्महितपीवर्ग में वैसे महात्मा पुरुषों का अवश्य आश्रय लेना दुरस्त है. तब आश्रय करनेयोग्य मुमुक्षुवर्गने आपकेही कल्याणार्थ और आश्रय लेनेवाले इतर आत्महितैषिवर्गकी खातिर
आपके असंख्य देशरुप आत्मामें कैसी.उमदा और विशाल-गुण सृष्टि रचनाकों पैदा करनी चाहिये. लोकप्रसिद्ध वार्ता है किकुवमें होगा तो होझमें आवेगा' मगर कुवमेंही पानीका तोटा होगा तो होझमें कहांसे पानी आ सकेगा ! यदि मुमुक्षुओं उत्तम गुण