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________________ કર __ भावना:-धर्म कार्य करने के भीतर अनुकूल चित्त न्यापार ९५ है. वैसी अनुकूल पित्तत्ति रुपकी प्राप्तिके सिवाय धर्मकरणी चाहिये वैसा फल नहीं दे सकती है. यावत् चित्तकी प्रसन्नता वि. पर की गई या करानेमें आती हुई करणी राज्यवे० समान होती है; वास्ते कुल्ल जगह भाव प्राधान्य रुप है. भाव विगरका धर्मकायभी अतूने धान्य-भोजन जैसा फीका लगता है, और वो भाव सहित होवै तो सुंदर लगता है. इस लिये हरएक प्रसंगमें शुद्ध भाव अवश्य आदरने योग्य है. सर्वज्ञकथित भावनाओं भव संसारका • नाश करती हैं. मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता रूप चार भाबनायें भवभय हरने वाली हैं. जगत्के जीव मात्रका मित्र गिननरुप मैत्री भाव है. चंद्रका देख जैसें चकोर प्रमुदित होता है वैसें सद्गुणीको देखकर भव्य चकोर चित्तमें प्रसन्न होवै वो प्रमुदित या मुदिता भाव कहा जाता है. दुःखी जीवको देखकर आपका हृदय पिघल जाय और यथाशक्ति उसका दुःख दूर करनेके लिये प्रयता हो सके सो करै उसको करुणा भाव कहा जाता है. और महापाप रनि प्राणीपर भी क्रोध द्वेष न लातें मनमें कोमलता रख उदासीनता धरनेमें आवे उसको मध्यस्थ भाव कहा जाता है. ऐसी उत्तम भावना भाषित अंत:करणवाले माणि पवित्र धर्मके पूर्ण अधिकारी गिने जाते हैं. उनके दर्शनसें भी पाप नष्ट हो जाता है. वैसे शुद्ध भाव पुर्वक शुद्ध क्रिया करने वाले महात्माओके प्रभाबस पापी पाणी भी अपना जाती र छोडकर-अपना र स्वभाव दर कर शांत स्वभाव धारन करते हैं. असे अपुर्व योग-मभाव पु
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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