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________________ २१९ नुसार करना और उस मुवाकिक अमल करने अन्य कों सलाह देना. सारांश यह है की श्री वीतराग वचनानुसार ज्यौं स्वपरका श्रेय और पवित्र शासनकी उन्नति हो त्यों द्रव्यक्षेत्रकाल भावकों लक्षमें रख करके वचना चाहिये. यह विषय वडा गंभीर गहन और उपयोगी होनेसें विशेष रुचि भव्य सचोकों इस विषय संबंधी ग्रंथ खास अवलोकन कर तत्व रहस्य खींचकर ज्यौं स्वपरका श्रेय होवै त्यों सरलपनसें वर्त्त - नेका यत्न करना. धर्म रहस्य जानकर उस मुजब सरलतासें वर्त्तना यही सार है. जान लिया भी उनी काही मंजूर व दुरस्त है; नहीं तो केवल भारभूतही समझना. सच्ची रीतिसें न्यायकों यथार्थ समजने वाला भवभीरु हो उसी मुजब न्याय पुरःसर चलनेवाला जगतुको आशिर्वाद रुप होता है. और उनसे विरुद्ध वर्त्तनवाला शाप रुपही होता है, प्रमाणिकता से चलने वाला मनुष्य सरल हो सक्ता मगर अप्रमाणिकतासें चलनेवाला अन्यायी तो सांपकी तरह वक्रताही धारन करता है. वो मिथ्या विपसे पूर्ण होनेसें भव भीरु सज्जन उनका संग या विश्वास नहीं करते है. उनसे दूर ही रहेते है या उनको दूर करते है. न्यायके अर्थी जीवों को समजने के वास्ते एक दृष्टांत बताते है कि- श्रीमान् पितादिककी लक्ष्मीका वा रसा मिलाने में उनके पुत्र वगैरः जितने दर्जे हकदार है उतने दर्जे वही पितादिकका देव -ज्ञान- माधारण या चाहे वो धर्मादा द्रव्य आपकी भइ हुई हीनपत से लेकरके या फक्त प्रमादही देवा रह
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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