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________________ ख्यालम रखकर पैसे व हिम्मत धारण कर यह महान् दोष सेवन नहि करना. सत्यसें युधिष्ठिर, धर्मराजाकी गिन्तीमें गिनाये गये, असा जानकर असत्य बोलनेकी या प्रयोजन विगर बहोत पोलनेकी आदत छोडकर हितमितभाषी बनजाना, किसीकों अग्रीति खेद पैदा होय वैसा बोलनकी आदत यत्नसे छोडदेनी चाहिये. ___४ शील कबीभी नहि छोडना. __ ब्रह्मचर्य व्रत या सदाचार के नियम चाहें वैसें संकटमें भी लोप देनेकी इच्छा नहिं करनी. सत्यपंत अपने व्रतोंको प्राणोंकी समान गिनते हैं, यानि अखंडव्रती रहते है, सोही सच्चे शूरवीर गिने जाते है५ कबीभी कुशीलजनक संग निवास नहि करना. ' कुत्सित आचारपाल के साथ रहेनेसे 'सोवते अमर । यह कहनावत मुजब अपने अच्छे आचारोंको अवश्य धोखा-धका पहुंचता है और लोकापवादभी आता है। इसी लिये लोकापवाद भीरुजनोंको वैसे भ्रष्टाचारीयोंकी सोपत सर्वथा त्याग देनीही योग्य है. सोबत करनेकी चाहना हो तो कल्परक्षके समान शीतल छाउके देनेवाले संत पुरुषको ही सोबत करोकि, जिसे सब संसारका ताप दूरकर तुम परम शांत रस चाखनेको भाग्यशाली बन सको. . ६ गुरुवचन कदापि नहि लोपना. एकांत हितकारी सत्य-निदोष मार्गकोही सदा सेवन करनेपाले और सत्य मार्गको दिखानेवाले सद्गुरुका हितवचन कदापि
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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