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२४३ हाथ करनेमें वेनशीद रहे हुवे अर्धगत उमरवाले तथा बुभाई और भगिनीऑकों धर्मरहस्य समझाने के वास्ते प्रतिबंध रहित गाँवगाँवमें विचरते हुवे महाशय साधुवर्ग या साध्वीवर्ग आप खुद शास्त्राभ्यास करके, शास्त्राज्ञा मुजब शुद्ध संयमकी दरकारवाले वनकर स्वाश्रित श्रावक, श्राविकाओंको धर्मरहस्यको पूर्ण समझ पडे पैसी सादी सरलभाषामें उपदेश देना शुरू कर लेबै, और दूसरी कितनीक निकम्मी पावता-विकथाओंमें अपना अमूल्य वसत जाही न गुमाते उसका पारमार्थीक हेतुसे सदुपयोग कर लेवै. उन्हों. को जैनोके पवित्र आचार विचारकी समझ पाड देवं, उन्कोंके बुरे रीत रिवाजके दुर्गुण सुल्ले कर पतलावै, भक्ष्याभक्ष्य कृत्याकृत्य संबंधी खुलासा कर दिखलावै, धर्मक्रियाके हेतु समझाकर जिस प्रकार वै नियाणा रहित निर्मल चित्तसें करने में आती दुई धर्मकरणीका रहस्य पाकर, प्रभुजीकी पवित्राज्ञानुसार धर्मका आराधन कर सद्गतिके भोक्ता होसकै, उस प्रकार चलन रखनेकी दरकार १७खें, तो सुलमतासें अच्छी सुधारा हो सकै. एक समान चलन व कथनयुक्त चलते हुवे मुनीराज भव्य प्राणियोंका तत्त्वसें जितना भला कर सकै, उससे सोवें हिस्सेका भी रूसी कथनी मात्रसें नहीं किया जायगा. और ऐसा कहा भी है कि-'जन मनरंजन धर्मका, मूल्य न एक बंदाम.' यानि लोगोंकों राजी करने के वास्ते ही वेष धारन करना वो तो फक्त कटरुपही है. संत सुसाधुजनोंका सर्वप्न मात्रसें कितनेक अल्पकी जीवोंका पहेतर हो सकता है,