________________
९३
4
रोहण गिरि ज्यौ रतन खाण त्यौं, गुन सर्व यामें समायारे; महिमा मुखसे बरनत यांकी, सुरपति मन शंकायारे. पूरव ५ कल्पवृक्ष सम संयम केरी, अति शीतल जहां छायारे;
चरण करण गुन धरण महामुनी, मधुकर मन लोभायारे. पू. ६ यह तन चिन तिहुँ काल कहो किन, सच्चा सुख निपजायारे; औसर पाय न चूक चिदानंद, सद्गुरु यौं दरसायारे, पूरव. ७
ये महाशय के वचन सुनकर विषयविमुख हो अवश्य जाग्रत होनाही दुरस्त है. और उन उन दुष्ट विषयों में मरजी मुजब घूमते हुए मन मर्कट और इंद्रियरूप घोडेको रोककर श्री जिनाज्ञारूप सकल और चाबुक कायदे में रखकर उन्होंको प्रशस्त विषय जैसे कि श्री जिनदर्शन-पूजन, श्री गुरु संघ-साधमी सेवन और श्री वीतराग वचनामृत पान करने वगैर: में कुशलता पूर्वक प्रवर्त्ता में आवै तो जरूर जैसा चाहियें वैसा लाभ हो सकै. यानि संतोषामृतकी वृष्टिसें लीला रहर हो रहैतथास्तु !
३ कषाय-कषाय यानि संसार लाभ अर्थात् कष ( संसार ) और आय (लाभ) इन शब्दके जुड जानेसें उसीका नाम कषाय तसें रखा गया है. सो कोष मान माया और लोभ मिलकर चार प्रकारके कषाय है. क्रोध स्नेहका, मान विनयका, माया मित्रका और लोभ इन सभीका नाश करनेवाला है. उन हरएकका संजलन, प्रत्याख्यान, अपत्याख्यान तथा अनंतानुबंधी असे चार चार भेद हैं. और जिनकी उत्कृष्ट स्थिति कमसें आधा महीना,