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की जनोंको किननो प्रयत्नशील रहना उचित है ? संबोध सित्तरी ग्रंथमें कहा है कि:-' आणा जुत्तो संवो सेसो पुण अधिसंघाओयानि जो परम श्री जिनराजदेवकी आज्ञा मुजप चलते हैं पैसे साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओका श्री संघमें समावेश होता है, और उससे विरुद्ध चलनेवाले-रवच्छंदी लोक तो केवल हड्डी, मांस, मेद, रुधिर वगैरः के पुतलेरुप मतलव विगर के हैं. पैसे असार सत्वहीन जनाका श्री संयम समावेश नहीं हो सकता है, ऐसा समझकर विवेकी मनुष्योंकी अपनी अपनी साधु, साध्वी, श्रावक या श्राविकारुपकी उत्तम फर्ज मुजब काम बजाकर अपना नाम सार्थक करने के और जैन शासन दीपाने के वास्ते प्रयत्न करना चाहिय; क्यो कि ऐसे सार्थक नामधारी चतुर्विध संघस ही जैन शासनकी शोभा है. ऐसा गुण समुद्र श्री संघ जगत् मान्य होता है. वो जगमतीर्थरुप होनेसें समागममें आनेवाले भव्य जीवोंको पावन करते है. जिन के पूर्ण भाग्य होवै उन्हीको ऐसे पवित्र तीर्थरु५ श्री संघका दर्शन, पंदन, पूजन, वगैर: होता है. श्री संघ गुणरुपी रत्नास भरा हुवा रत्नाकर-समुद्र है; वास्ते गुणानुरागी सजनोंको अवश्य आदरणीय और पूजनीय है. श्री संधी सम्यग् सेवनास अनेक भन्यजन यह भीष्म भवोदधिको तिरकर सब दुःखीका अंत कर अक्षय सुख पाये हैं. हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, और परिग्रहरु५ पंच महान् आश्रय यानि कर्मको दाखिल होनेके दरवाजे खुले ही होनेसे आत्मा बहुत ही मलीन होता है,