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वास्ते विचक्षण जनोंकों ऐसे हरएक प्रसंग में समभाव युक्त रहना चाहियें.
(१६) सोलहवें पर परिवाद - परनिंदा - अपकर्ष और आत्मश्लाधा - आत्मोत्कर्ष करनेरूप ये पापस्थान अति घोर है. जैसें झूठा बोलनेहारा, दूसरे पर झुंठे कलंक चडानेहारा, और चुगलखोर कचंडाल कहे जाते है, वैसें पराइ निंदा करनेवाला, बिलकुल झूठी आप बडाइ करनेहारा भी उक्त कहे गये कर्मचंडालोंसें कुछ नीचे दर्जेका नहीं; लेकीन उन्हीकी पंक्तिकाही है. स्वमुखसें परमल लेकर आपके अंगको मलीन कर स्हामनेवालेकों उज्वल करनेहारा निंदक - दुर्जन भी सज्जनोंकों तो एक तरहसें उपकार करने हारे है. तोभी उनके अति अनार्य - जंगली आचरणसें घोरातिघोर नरक निगोदादि दुःखके हिस्सेदार होनेसें उन्हीको देखकर सज्ज - नोंकों कोमल हृदय कांपने लगता है. वास्ते ये अत्यंत अनिष्ट अनाये कुटेव अवश्य छोडकर सज्जनताही भजनी चाहियें. भुल चुकमें भी दुर्जनके दुष्ट रस्तेकी तर्फ निगाह तकमी न करनी. यदि आपका भलाही चाहते हो तो उपर कही गई हितशिक्षा की भी मत भुल जाइयो - इनको हरदम स्मरण करकेही चलियोकि जिस्से अंत में बेहद नफा पावोगे.
(१७) सत्तरहवें माया मृषावाद माया कपट और मृषा-झुठ इन दोनुका सेवन करना यानि कहना कुछ और करना कुछ. कुम्हारके मिच्छामि दुक्कडके समान आपमतिद्वारा उलटे चलते