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धर्म स्वपरको हितकारी होता है; किंतु केवल आपमतीसें किया धर्म हितकर नहीं होता है. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको पूर्ण प्रकारसे लक्षमें रखकर उचितमार्ग सेवन करनेके लिये श्री अरोहंत प्रभुकी नीति है. वास्ते उच्चपदाभिलाषी सज्जनोंको सर्वज्ञ प्रभुजीने परम करुणाद्वारा बताई गई जैसी अनूपम नीतिको अनुसरके चलनेकी तथा अप्रिय स्वच्छंदी-आपखुदी आचरण छोडदेनेकी ही आवश्यकता है. अभी या पीछे भी स्वच्छंदता छोडकर जिनाज्ञा मुजब पतन चलाये विगर जीवका मोक्ष होनेका ही नहीं. तो अभी सामग्री विद्यमान होने परभी प्रमाद करना ये किसी रीति से आ-- ताको हितकारि है ही नहीं.
१३ अहा ? आजकल जीवमात्र प्रथम तो अपनी अपनी फर्ज कचित् ही समझते हैं, और समझकर प्रमादको छोड कोई विरले नररत्न सन्मार्ग पर पहन करते हैं अर्धदग्धोंकों तो समझाने पास्ते ब्रह्मा या वृहस्पति भी असमर्थ हैं, तो फिर अपन तो उ. न्होंको किस तरह समझा सकेंगे ? स्वल्पमें कहदेवै तो, जीव जैसा खाली हाथसे आया है वैसा ही पीछ। रीते हाथोंसें चला जानेवाला है. अरे ! आप खुद भी प्रत्यक्ष अनुभवसें औसा जान-देख सकता है; तथापि जैसा दुर्लमें सामग्री सफल करनेके वास्ते कुछ भी चा. हिये पैसा नहीं कर सकता है, यही महान् आश्चर्यसूचक वार्ता है ? झूठे मान लिये स्वार्थकी खाविर तो बडा भारी भगीरथ यत्न करता है, उस खत तो प्राणपत् मिय द्रव्यकों भी पानीकी तरह